film review
INSTITUTEOF VOCATIONAL STUDIES
AWADH CENTRE OF EDUCATION
(Affiliated by Guru Gobind Singh Indraprastha University)
BACHELOR OF EDUCATION (B.Ed.) PROGRAMME
SESSION- 2016– 2018
UNDERSTANDING
THE SELF-155
NAME: AMJAD HUSSAIN
R.NO.00513902116
थ्री इडीयट्स
बैनर : विधु
विनोद चोपड़ा प्रोडक्शन्स
निर्माता
: विधु
विनोद चोपड़ा
निर्देशक : राजकुमार
हिरानी
लेखक : राजकुमार
हिरानी, अभिजीत जोशी, विधु विनोद चोपड़ा
गीत : स्वानंद
किरकिरे
संगीत :शांतनु
मोइत्रा
कलाकार : आमिर
खान, करीना कपूर, आर. माधवन, शरमन जोशी, बोमन ईरानी, ओमी, मोना सिंह, परीक्षित साहनी, जावेद
जाफरी
यू/ए * 20 रील * 2
घंटे 50 मिनट
रेटिंग : 3.5/5
राजकुमार हिरानी की खासियत है कि वे
गंभीर बातें मनोरंजक और हँसते-हँसाते कह देते हैं। जिन्हें वो बातें समझ में नहीं
भी आती हैं, उनका कम से कम मनोरंजन तो हो ही जाता है।
चेतन भगत के उपन्यास 'फाइव पाइंट
समवन' से प्रेरित फिल्म '3 इडियट्स' के जरिये हिरानी ने वर्तमान शिक्षा प्रणाली,
पैरेंट्स का बच्चों पर कुछ बनने का दबाव और किताबी ज्ञान की उपयोगिता पर मनोरंजक
तरीके से सवाल उठाए हैं।
हर विद्यार्थी एक न एक बार यह सोचता
है कि जो वो पढ़ रहा है, उसकी क्या उपयोगिता है। वर्षों पुरानी लिखी बातों को उसे
रटना पड़ता है क्योंकि परीक्षा में नंबर लाने हैं, जिनके आधार पर नौकरी मिलती है।
उसे एक ऐसे सिस्टम को मानना पड़ता है, जिसमें उसे वैचारिक आजादी नहीं मिल पाती है।
माता-पिता भी इसलिए दबाव डालते हैं
क्योंकि समाज में योग्यता मापने का डिग्री/ग्रेड्स पैमाने हैं। कई लड़के-लड़कियाँ
इसलिए डिग्री लेते हैं ताकि उन्हें अच्छा जीवन-साथी मिले।
इन सारी बातों को हिरानी ने बोझिल
तरीके से या उपदेशात्मक तरीके से पेश नहीं किया है बल्कि मनोरंजन की चाशनी में
डूबोकर उन्होंने अपनी बात रखी है। आमिर-हिरानी कॉम्बिनेशन’ के कारण अपेक्षाएँ इस
फिल्म से बहुत बढ़ गई हैं और ये दोनों प्रतिभाशाली व्यक्ति निराश नहीं करते हैं।
रणछोड़दास श्यामलदास चांचड़ का निक
नेम रांचो है। इंजीनियरिंग कॉलेज में रांचो (आमिर खान), फरहान कुरैशी (आर माधवन)
और राजू रस्तोगी (शरमन जोशी) रूम पार्टनर्स हैं।
फरहान वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर बनना
चाहता है, लेकिन उसके पैदा होने के एक मिनट बाद ही उसे इंजीनियर बनना है ये उसके
हिटलर पिता ने तय कर दिया था। वह मर-मर कर पढ़ रहा है।
राजू का परिवार आर्थिक रूप से बेहद
कमजोर है। भविष्य का डर उसे सताता रहता है। विज्ञान का छात्र होने के बावजूद वह
तमाम अंधविश्वासों से घिरा हुआ है। पढ़ाई से ज्यादा उसे पूजा-पाठ और हाथ में पहनी
ग्रह शांति की अँगूठियों पर है। वह डर-डर कर पढ़ रहा है।
रांचो एक अलग ही किस्म का इंसान है।
बहती हवा-सा, उड़ती पतंग-सा। वह ग्रेड, मार्क्स, किताबी ज्ञान पर विश्वास नहीं
करता है। आसान शब्दों में कही बात उसे पसंद है। उसका मानना है कि जिंदगी में वो
करो, जो तुम्हारा दिल कहे। वह कामयाबी और काबिलियत का फर्क अपने दोस्तों को समझाता
है।
रांचो के विचारों से कॉलेज के
प्रिंसीपल वीर सहस्त्रबुद्धे (बोमन ईरानी) बिलकुल सहमत नहीं है। वे जिंदगी की
चूहा-दौड़ में हिस्सा लेने के लिए एक फैक्ट्री की तरह विद्यार्थियों को तैयार करते
हैं।
पढ़ाई खत्म होने के बाद रांचो अचानक
गायब हो जाता है। वर्षों बाद रांचो के दोस्तों को उसके बारे में क्लू मिलता है और
वे उसे तलाशने के लिए निकलते हैं। इस सफर में उन्हें रांचो के बारे में कई नई
बातें पता चलती हैं।
कहानी को स्क्रीन पर कहने में
हिरानी माहिर हैं। फ्लेशबैक का उन्होंने यहाँ उम्दा प्रयोग किया है। हीरानी और अभिजात
जोशी ने ज्यादातर दृश्य ऐसे लिखे हैं जो हँसने पर, रोने पर या सोचने पर मजबूर करते
हैं।
अपनी बात कहने के लिए उन्होंने
मसाला फिल्मों के फॉर्मूलों से भी परहेज नहीं किया। माधवन का नाटक कर हवाई जहाज
रूकवाना, करीना कपूर को शादी के मंडप से भगा ले जाना, जावेद जाफरी से आमिर का पता
पूछने वाले सीन देख लगता है मानो डेविड धवन की फिल्म देख रहे हों।
पहले हॉफ में सरपट भागती फिल्म
दूसरे हाफ में कहीं-कहीं कमजोर हो गई है। खासतौर पर मोनासिंह के माँ बनने वाला सीन
बेहद फिल्मी हो गया है।
आमिर की फिल्म में एंट्री और रेगिंग
वाला दृश्य, चमत्कार/बलात्कार वाला दृश्य, रांचो द्वारा बार-बार साबित करना कि
पिया (करीना कपूर) ने गलत जीवन-साथी चुना है, ढोकला-फाफड़ा-थेपला-खाखरा-खांडवा
वाला सीन, राजू के घर की हालत को व्यंग्यात्मक शैली (50 और 60 के दशक की ब्लैक एंड
व्हाइट फिल्मों की तरह) में पेश किया गया सीन, बेहतरीन बन पड़े हैं।
तारे ज़मीन पर
निर्देशक-: आमिर ख़ान
निर्माता-:
आमिर
ख़ान
लेखक-: अमोल
गुप्ते (सर्जनात्मक निदेशक भी)
अभिनेता-:
आमिर
ख़ान,दर्शील सफारीा ,डिस्को चोपड़ा ,विपिन शर्मा,तनय हेमंत छेडा
संगीतकार-:
शंकर
एहशान लॉय
छायाकार-:
Setu
संपादक-: दीपा भाटिया
(संकल्पना और शोध भी)
वितरक आमिर खान प्रोडक्शन्स (भारत - फ़िल्म)
यूटीवी
सॉफ्टवेयर कम्युनिकेशंस (भारत - डीवीडी)
द
वॉल्ट डिज्नी कंपनी (अंतर्राष्ट्रीय डीवीडी)
प्रदर्शन तिथि-:
दिसम्बर
21, 2007
समय सीमा-: 140 मिनट.
देश-: भारत
भाषा-: हिन्दी/अंग्रेज़ी
लागत-: 12 करोड़
कुल कारोबार-: 131 करोड़
नन्हे-मुन्ने
बच्चे हमारे देश की जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा हैं, लेकिन इनके लायक फिल्में
बहुत कम बनती हैं। आमिर खान के साहस की प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होंने अपने
निर्देशन में बनी पहली फिल्म ‘तारे जमीन पर’ एक बच्चे को केन्द्र में रखकर बनाई
है। वे चाहते तो एक कमर्शियल फिल्म भी बना सकते थे। इस फिल्म के जरिए उन्होंने
बच्चों के भीतर झाँकने की कोशिश की है।
कहानी
का मुख्य पात्र है ईशान अवस्थी (दर्शील सफारी)। उसकी उम्र है आठ वर्ष। बेचारा
ईशान, है तो नन्हीं जान, लेकिन उसके कंधों पर पापा-मम्मी के ढेर सारे हैं अरमान।
वे चाहते हैं कि ईशान अपने होमवर्क में रूचि लें। परीक्षा में अच्छे नंबर लाएँ।
हमेशा साफ-सफाई का ध्यान रखें। ईशान कोशिश करता है, लेकिन फिर भी वह उन अपेक्षाओं
पर खरा नहीं उतर पाता।
ईशान
की जिंदगी में पतंग, रंग और मछलियों का महत्व है। वह इनके बीच बेहद खुश रहता है।
उसे पता नहीं है कि वयस्कों की जिंदगी में इन्हें महत्वहीन माना जाता है। लाख
समझाने के बावजूद भी जब ईशान अपने माता-पिता की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाता तो
वे उसे बोर्डिंग स्कूल भेजने का निर्णय लेते हैं। उनका मानना है कि दूर रहकर ईशान
अनुशासित हो जाएगा। कुछ सीख पाएगा।
ईशान
नए स्कूल में जाता है, लेकिन उसमें कोई बदलाव नहीं आता। उसे अपने घर की याद सताती
है। एक दिन स्कूल में नए आर्ट टीचर आते हैं। नाम है उनका रामशंकर निकुंभ (आमिर
खान)। वे आम टीचर से बिलकुल अलग हैं। उनके पढ़ाने के नियम अलग हैं। वे बच्चों से
उनकी कल्पनाएँ, उनके सपने और उनके विचार पूछते हैं और उसके अनुसार पढ़ाते हैं।
बच्चों
को ऐसा टीचर मिल जाएँ तो फिर क्या बात है
आराक्षण
बैनर : प्रकाश झा
प्रोडक्शन्स, बेस इंडस्ट्रीज ग्रुप
निर्माता : फिरोज
नाडियाडवाला
निर्देशक : प्रकाश झा
संगीत : शंकर-अहसान-लॉय
कलाकार : अमिताभ बच्चन,
सैफ अली खान, दीपिका पादुकोण, मनोज बाजपेयी, प्रतीक, तनवी आजमी, मुकेश तिवारी,
चेतन पंडित, यशपाल शर्मा, सौरभ शुक्ला
सेंसर
सर्टिफिकेट : यू/ए * 2 घंटे 47 मिनट * 20 रील
रेटिंग : 2/5
आरक्षण
एक ऐसा मुद्दा है जिस पर हर उम्र और वर्ग के लोगों के पास अपने-अपने तर्क हैं।
वर्षों से इस पर अंतहीन बहस चली आ रही है। इसी मुद्दे को निर्देशक प्रकाश झा ने अपनी
फिल्म के जरिये भुनाने की कोशिश की है। सबसे पहले तो उन्होंने फिल्म का नाम ही
आरक्षण रखा, जिसकी वजह से यह पिछले कुछ माहों से लगातार चर्चा में है। फिर फिल्म
के ट्रेलर ऐसे तैयार किए जिससे लगा कि इस विषय पर एक गंभीर फिल्म देखने को मिलेगी,
जो सही या गलत का पड़ताल कर कुछ नई बात दर्शकों के समक्ष रखेगी, लेकिन पहले घंटे
में आरक्षण के पक्ष और विपक्ष में की गई कुछ डॉयलागबाजी के बाद फिल्म से आरक्षण का
मुद्दा हवा हो जाता है।
यह
फिल्म अच्छाई और बुराई की लड़ाई बन जाती है। एक फैमिली ड्रामा बन जाती है। दर्शक
सिनेमाहॉल जब छोड़ता है तो उसे लगता है कि वह देखने कुछ और गया था और दिखाया कुछ
और। जैसे फिल्म की पब्लिसिटी एक कॉमेडी फिल्म की गई हो और एक्शन मूवी दिखा दी गई
हो। भोपाल के एक प्राइवेट कॉलेज एसटीएम में प्रभाकर आनंद प्रिंसीपल है। अपनी
ईमानदारी और सिद्धांतों पर अडिग रहने के कारण वह सभी का सम्मानीय है। उसके कॉलेज
में दलित वर्ग का दीपक कुमार (सैफ अली खान) प्रोफेसर है। ऊंची जाति के मिथिलेश
(मनोज बाजपेयी) जैसे कुछ प्रोफेसर उससे नफरत करते हैं।
दीपक
कुमार को प्रभाकर आनंद की बेटी पूरबी (दीपिका पादुकोण) पसंद करती है। कॉलेज में पढ़ने
वाला छात्र सुशांत (प्रतीक) इन सब से घुला-मिला है। इनके संबंध तब तक मधुर रहते
हैं जब तक सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ओबीसी के लिए
27 प्रतिशत का आरक्षण तय नहीं कर दिया जाता है। जैसे ही यह फैसला आता है आरक्षण के
मुद्दे को लेकर इनके संबंधों में खटास आ जाती है। प्रभाकर आनंद किस ओर है, यह
स्पष्ट न करने से सवर्ण वर्ग वाले भी नाराज हो जाते हैं और दलित वर्ग का दीपक
कुमार भी। इसके बाद फिल्म प्रभाकर आनंद बनाम मिथिलेश की लड़ाई में बदल जाती है।
मिथिलेश
कॉलेज में न पढ़ाते हुए अपनी कोचिंग क्लास में पढ़ाता है। प्रभाकर आनंद जब उसके
साथ सख्ती करते हैं तो मिथिलेश बदला लेते हुए उन्हें प्राचार्य पद से हटने पर
मजबूर करता है। उसका घर और सम्मान छीन लेता है। किस तरह से प्रभाकर आनंद अपना गौरव
फिर से प्राप्त करते हैं, ये फिल्म का सार है। फिल्म तब तक ठीक लगती है जब तक
आरक्षण को लेकर सभी में टकराव होता है। दलित वर्ग क्यों आरक्षण चाहता है, इसको सैफ
के संवादों से दर्शाया गया है। जिन्हें आरक्षण नहीं मिला है, उन्हें इसकी वजह से
क्या नुकसान उठाना पड़ा है, इसे आप प्रतीक द्वारा बोले गए संवादों और एक-दो
घटनाक्रम से जान सकते हैं।
प्रभाकर
आनंद की बीवी का कहना है कि बिना आरक्षण दिए भी दलित वर्ग का उत्थान किया जा सकता
है। उन्हें आर्थिक सहायता दी जाए, मुफ्त में शिक्षा दी जाए, प्रतियोगी परीक्षाओं
के लिए तैयार किया जाए। इस पर प्रभाकर का कहना है कि ये सब बातें नहीं हो पाई हैं,
इसीलिए आरक्षण किया गया है। शुरुआत में सैफ के इंटरव्यू देने वाला सीन,
अमिताभ-सैफ, सैफ-प्रतीक के बीच फिल्माए गए सीन उम्दा हैं। सैफ के विदेश जाते ही
फिल्म की रौनक गायब हो जाती है। यहां पर झा कोचिंग क्लासेस द्वारा शिक्षा को
व्यापार बनाए जाने का मुद्दा उठाते हैं जो बेहद ड्रामेटिक है। यह पार्ट ज्यादा
अपील इसलिए नहीं करता क्योंकि बार-बार यह अहसास होता रहता है कि फिल्म दिशाहीन हो
गई है।
अमिताभ
के कैरेक्टर को महान बनाने के चक्कर में भी फिल्म भटकी गई है। अंत में अमिताभ का
कैरेक्टर जीतता जरूर है, लेकिन अपने बल पर नहीं, बल्कि हेमा मालिनी के किरदार के
दम पर जो अचानक फिल्म में प्रकट हो जाती हैं और उनकी बात सभी सुनते हैं। मनोज
बाजपेयी को छोड़ अचानक सबका हृदय परिवर्तन होना भी फिल्मी है।
प्रकाश
झा का निर्देशन खास प्रभावित नहीं करता। उन्होंने ना केवल दृश्यों को लंबा रखा
बल्कि कुछ गैर-जरूरी सीन भी फिल्माए। शुरुआती घंटे के बाद फिल्म पर से उनका
नियंत्रण छूट जाता है। उनके लिखे संवाद कुछ जगह प्रभावित करते हैं। फिल्म में गाने
केवल लंबाई बढ़ाने के काम आते हैं। अमिताभ बच्चन को सबसे ज्यादा फुटेज दिया गया है
और पूरी फिल्म उनके इर्दगिर्द घूमती है।
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